कुमाऊँनी और गढ़वाली भाषा: संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की जरूरत

परिचय
भारत एक विविधतापूर्ण देश है, जहां सैकड़ों भाषाएं और बोलियां बोली जाती हैं। भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाओं को आधिकारिक मान्यता दी गई है। हालांकि, उत्तराखंड की दो प्रमुख भाषाएं, कुमाऊँनी और गढ़वाली, अभी तक इस अनुसूची में शामिल नहीं हैं। इन भाषाओं को शामिल करने की मांग लंबे समय से उठ रही है, और यह ब्लॉग इस विषय पर चर्चा करता है कि इन भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल करना क्यों महत्वपूर्ण है, साथ ही इसके लिए किए गए पिछले प्रयासों पर भी प्रकाश डालता है।
कुमाऊँनी और गढ़वाली का महत्व
कुमाऊँनी और गढ़वाली उत्तराखंड के कुमाऊँ और गढ़वाल क्षेत्रों की प्रमुख भाषाएं हैं। ये भाषाएं न केवल स्थानीय लोगों की पहचान का हिस्सा हैं, बल्कि इनमें समृद्ध साहित्य, लोककथाएं, गीत, और सांस्कृतिक धरोहर भी मौजूद हैं। लाखों लोग इन भाषाओं को अपनी मातृभाषा के रूप में बोलते हैं, और ये भाषाएं उत्तराखंड की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत को संरक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
सांस्कृतिक महत्व

लोक साहित्य और परंपराएं: कुमाऊँनी और गढ़वाली में प्राचीन लोककथाएं, भजन, और कविताएं हैं जो पीढ़ियों से चली आ रही हैं।
सामाजिक एकता: ये भाषाएं स्थानीय समुदायों को एकजुट करती हैं और उनकी सांस्कृतिक पहचान को मजबूत करती हैं।
शिक्षा और संरक्षण: इन भाषाओं को मान्यता देने से स्कूलों में इन्हें पढ़ाने और संरक्षित करने में मदद मिलेगी।

आर्थिक और शैक्षिक लाभ

शिक्षा में समावेश: आठवीं अनुसूची में शामिल होने से इन भाषाओं को स्कूलों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाने के लिए सरकारी सहायता मिल सकती है।
रोजगार के अवसर: भाषा विशेषज्ञों, अनुवादकों, और शिक्षकों के लिए रोजगार के नए अवसर खुल सकते हैं।
साहित्य और प्रकाशन: इन भाषाओं में साहित्य के विकास और प्रकाशन को बढ़ावा मिलेगा।

आठवीं अनुसूची में शामिल करने की आवश्यकता
भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल भाषाओं को विशेष दर्जा प्राप्त होता है, जिससे उन्हें सरकारी और शैक्षिक स्तर पर बढ़ावा मिलता है। कुमाऊँनी और गढ़वाली को शामिल करने के कई कारण हैं:

भाषाई समानता: अन्य क्षेत्रीय भाषाएं जैसे भोजपुरी, मैथिली, और संथाली को पहले ही अनुसूची में शामिल किया जा चुका है। कुमाऊँनी और गढ़वाली भी उतनी ही समृद्ध और व्यापक हैं।
सांस्कृतिक संरक्षण: इन भाषाओं को मान्यता न मिलने से उनकी लोकप्रियता और उपयोग में कमी आ रही है, जो सांस्कृतिक क्षति का कारण बन सकता है।
संवैधानिक अधिकार: भारत के संविधान में भाषाई अल्पसंख्यकों को अपनी भाषा और संस्कृति को संरक्षित करने का अधिकार है। इन भाषाओं को मान्यता देना इस अधिकार को लागू करने की दिशा में एक कदम होगा।

पिछले प्रयास
कुमाऊँनी और गढ़वाली को आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए कई प्रयास किए गए हैं, हालांकि अभी तक ये सफल नहीं हुए हैं। कुछ उल्लेखनीय प्रयास निम्नलिखित हैं:

युवा गढ़वाल सभा का ज्ञापन (2015): देहरादुन में युवा गढ़वाल सभा ने राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के उत्तराखंड दौरे के दौरान एक ज्ञापन सौंपा, जिसमें गढ़वाली और कुमाऊँनी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग की गई। संगठन के अध्यक्ष शांति प्रसाद भट्ट ने कहा कि इन भाषाओं को मान्यता न मिलने से उनकी स्थिरता खतरे में है और युवा पीढ़ी इनका उपयोग कम कर रही है।
संसद में चर्चा और मांगें: विभिन्न सामाजिक संगठनों और स्थानीय नेताओं ने समय-समय पर संसद में इन भाषाओं को शामिल करने की मांग उठाई है। हालांकि, अभी तक कोई ठोस नीति या मानक तय नहीं हुआ है।
स्थानीय सरकार के प्रयास: उत्तराखंड सरकार ने गढ़वाली, कुमाऊँनी, और जौनसारी भाषाओं को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करने का निर्णय लिया है, जैसा कि मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने 2025 में घोषणा की थी। इसके अलावा, इन भाषाओं की लोककथाओं, लोकगीतों, और साहित्य को डिजिटल रूप से संरक्षित करने के लिए डिजिटल संग्रहालय बनाने के निर्देश दिए गए हैं।
सामाजिक और सांस्कृतिक संगठनों की सक्रियता: उत्तराखंड के कई सामाजिक संगठनों और सांस्कृतिक समूहों ने इन भाषाओं के संरक्षण और प्रचार के लिए अभियान चलाए हैं, जिसमें आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग शामिल है।

चुनौतियां
कुमाऊँनी और गढ़वाली को आठवीं अनुसूची में शामिल करने में कुछ चुनौतियां भी हैं:

मानकीकरण की कमी: इन भाषाओं में अभी तक पूरी तरह मानकीकृत लिपि और व्याकरण का अभाव है।
जागरूकता की कमी: राष्ट्रीय स्तर पर इन भाषाओं के महत्व के बारे में कम जागरूकता है।
राजनीतिक इच्छाशक्ति: भाषाओं को शामिल करने के लिए संसद में पर्याप्त समर्थन की आवश्यकता है।

समाधान और सुझाव

मानकीकरण के प्रयास: कुमाऊँनी और गढ़वाली के लिए मानक लिपि और व्याकरण विकसित करने के लिए भाषा विशेषज्ञों की नियुक्ति।
शिक्षा में प्रोत्साहन: स्कूलों में इन भाषाओं को वैकल्पिक विषय के रूप में शामिल करना।
जागरूकता अभियान: सोशल मीडिया, कार्यशालाओं, और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से इन भाषाओं के महत्व को प्रचारित करना।
राजनीतिक समर्थन: स्थानीय नेताओं और सांसदों को इस मुद्दे पर एकजुट होकर संसद में प्रस्ताव लाने के लिए प्रेरित करना।

कुमाऊँनी और गढ़वाली को आठवीं अनुसूची में शामिल करना न केवल उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित करेगा, बल्कि यह स्थानीय समुदायों को उनकी भाषाई पहचान को मजबूत करने का अवसर भी देगा। पिछले प्रयासों, जैसे युवा गढ़वाल सभा के ज्ञापन और उत्तराखंड सरकार की पहल, ने इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं, लेकिन अभी और ठोस कार्रवाई की आवश्यकता है। यह कदम भारत की भाषाई विविधता को और समृद्ध करेगा और संवैधानिक समानता के सिद्धांत को बढ़ावा देगा। सरकार, समाज, और नागरिकों को मिलकर इस दिशा में काम करना चाहिए ताकि इन भाषाओं को उनका उचित स्थान मिल सके।

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